Monday, July 4, 2016

इस ईद

ईद की कई खूबसूरत यादें हैं, मजेदार किस्से हैं। साल-दर-साल बड़े चाव से ईद मनाई है। इफ़्तार पार्टियाँ तो उतनी नही एटेन्ड की है पर दोस्तों के घर पर उनके परिवार के साथ चौकी पर दस्तरख़ान बिछा अपनेपन से लबरेज़ बहुत इफ़्तार नसीब हुए। ईद के चाँद के लिए भी एकटक आसमान में झाँका है भाई बहन के साथ। जिसको सबसे पहले दिखता, वो भाग कर सबको बताता, दिखाता। माँ कहती कि ईद का चाँद देखना शुभ होता है। सेवइयाँ, अहा! तरह-तरह की, लच्छेदार, रंगीली, रसीली। जब चाव से चट कर जाते तो पता नहीं आपा कब तश्तरी में थोड़ा और धर जातीं। प्रेमचंद का ईदगाह था, ईदगाह का हामिद और हामिद के कई दोस्त-यार। उन दोस्तों में शायद एक गुमनाम दोस्त हम भी थे। सब मानो बिखर सा गया अब। पिछले कुछ दिनों में दुनिया में कई जगह इस्लाम के नाम पर दर्दनाक हादसों को अंजाम दिया गया। मानो आपसे, हमसे, हामिद से कोई हमारी ईद छीनना चाहता हो। एक हमला ढाका में भी हुआ...

इस ईद
ढाका के आसमां पे
चाँद नहीं निकलेगा
बस लाल लहू की इक लकीर होगी
औ होगा गुलशन के सन्नाटे का शोर

इस ईद
सेवाइयाँ मीठी नहीं होंगी
क़त्लो गारद का ज़हर होगा
गले मिलेंगे खौफशुदा जिस्म
क़ुरान की आयतें बुदबुदाते हुवे

इस ईद
नए कपड़ों में चहकते
बच्चे नहीं होंगे
बस कफ़न में लिपटी लाशें होंगी
औ बिलखते परिवारों का हुजूम

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