Wednesday, October 28, 2015

बरक्क़त वाले दिये

हर मिट्टी के दिये नहीं बनते
मिट्टी में बरक्क़त होनी चाहिए
पारखी हाथों से काढ़ कर ऐसी मिट्टी
बड़ी लगन से चाक पे घुमा घुमा घुमा
छोटे छोटे आकार बनाता
सुबह शाम पकाता सजाता
निहारता सँवारता
अपनी परख, लागत और मेहनत से
पूरे साल बरक्क़त वाले दिये बनाता
कुम्हार, सपरिवार
और जतन से सँभाल के रखता इन्हें हमारे लिए
यूँ कि हमारे मुंडेरों पे, बैलकनी पे
आँगन में, छतों पर, हमारे घर
दिवाली की रात बरक्क़त पहुंचे
और हम अनाड़ी, उफ़्फ़
ग्रिड की बिजली और
एल ई डी की लाईटिंग की चकाचौंध से
साल-दर-साल, हर साल
लक्ष्मी जी को रिझाने में लगे पड़ें हैं
चलो बरक्क़त वाले दिये सजाते हैं इस बार

(गुड़गांव, अक्तूबर 28, 2015)

-प्रारब्ध आर. जयपुरियार



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